Women in Islam

औरत व मर्द की अक़्ल के दरमियान फ़र्क़ की असलियत

सवाल: औरतों और मर्दों की अक़्ल के दरमियान की निसबत के सिलसिले में हज़रत अली (अस) का क्या नज़रिया है?
नहजुल बलाग़ा में इस क़ौल से हज़रत अली (अस) की मुराद क्या है : अक़्ली और जज़्बाती दोनों एतबार से मर्द औरतों से बालातर हैं।

मुख़्तसर जवाब
हज़रत अली (अस) ने एेसी बात नहीं कही कि मर्द, अक़्ल व एहसास दोनों एतबार से औरतों से बालातर हैं। औरतों का नुक़्स अक़्ल के बारे में जो नहजुल बलाग़ा में आया है उस की निसबत अगर हज़रत अली (अस) की तरफ़ सही मान भी लिया जाए तो वह एक ख़ास वाक़िये के सिलसिले में है यानी जंग जमल के बारे में, और तमाम ख़्वातीन के बारे में एक आम हुक्म नही है जैसा कि बाज़ मवारिद में ख़ुद मर्दों की भी मज़म्मत की गई है। हज़रत ख़दीजतुल कुबरा और हज़रत फ़ातिमा (अस) जैसी अपने ज़माने के मर्दों से ज़्यादा अाक़िल और नवाबिग़ रोज़गार(जीनियस) शख्सियतें हमारे नज़रिये पर बेहतरीन दलील हो सकती हैं।

हालांकि इमाम के मज़कूरा जुमले के बारे में दूसरे एहतिमालात(सम्भावनाएं) भी दिये गये हैं। मसलन यह कि यहां पर इमाम (अस) की मुराद अक़्ल इजतेमाई और अक़्ल मुहासिब है, ना कि अक़्ल इक़दारी जो कि अल्लाह से क़ुरबत व नज़दीकी का सबब बनती है। इस अक़्ल के एतबार से मर्द व औरत में कोई फ़र्क नहीं है। या इमाम ने यह कहना चाहा है कि नफ़सियाती एतबार से औरत के जज़्बात उसकी अक़्ल पर ग़ालिब रहते हैं कि अगर यह खुसूसियत ना होती तो औरत एक माँ के एतबार से अपना किरदार ना निभा पाती, इस एतबार से मर्द, औरत के बरख़िलाफ़ है यानी उसकी अक़्ल उसके जज़्बात पर ग़ालिब रहती है। और फ़ितरत के कारख़ाने का यह फ़र्क दरअस्ल अल्लाह की हिकमत है और इन फ़र्क़ों का होना भी जरूरी है। लिहाज़ा इमाम का मक़सद यह नहीं था कि इक़दार(मान्यता) व रूहानियत के एतबार से एक को दूसरे पर तरजीह दें बल्कि एक तकवीनी और क़ुदरती फ़र्क को बताना चाहते थे।
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तफ़सीली जवाब
अस्ल सवाल पर बहस करने से पहले पहले कुछ निकात पर तवज्जो मुफ़ीद होगी:

1: इन्सानी मुआशरे की तरबियत व तरक़्क़ी में माँ, बीवी, या तल्ख़ व शीरीं(कड़वा व मीठा) ज़िन्दगी की शरीके-हयात(जीवनसाथी) के तौर पर ख़्वातीन के अहम और बे मिस्ल किरदार का इन्कार नहीं किया जा सकता। यहां तक कि क़ुरआन ने वालिदैन की इताअत(आज्ञापालन) को अल्लाह की इताअत के बाद क़रार दिया है और यहां पर माँ बाप के दरमियान कोई फ़र्क नहीं रखा है। रसूल अल्लाह (स) भी हज़रत ख़दीजा और हज़रत फ़ातिमा के लिए एक ख़ास एहतराम के क़ायल थे। यह वही हक़ीक़त है जिस पर बानी ए जमहूरी ए इस्लामी हज़रत इमाम खुमैनी (रह) ने भी काफ़ी ताकीद करते हुए फ़रमाया है :
तारीख़ ए इस्लाम रसूल अल्लाह (स) की तरफ़ से इस मौलूद [हज़रत फ़ातिमा] के बेहद एहतराम पर शाहिद है, ताकि यह बता सके कि मुआशरे में औरत एक ख़ास मर्तबा रखती है और अगर मर्द से ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं है। (1)

2: मर्द व औरत के यकसां व बराबर होने का नज़रिया क़ुरआनी नज़रिया है जो कि क़ुरआनी आयात से बाआसानी हासिल किया जा सकता है। क़ुरआन की निगाह में रूहानी और जिस्मानी एतबार से औरत उसी गौहर से पैदा हुई है जिस से मर्द पैदा हुआ है और दोनों कि जिन्स हक़ीक़त व माहियत में एक हैं।
क़ुरआन का फ़रमान है : इन्सानों उस परवरदिगार से डरो जिसने तुम सबको को एक नफ़्स से पैदा किया है और उसका जोड़ा भी उसी की जिन्स से पैदा किया है और फिर दोनों से बकसरत मर्द व औरत दुनिया में फैला दिये हैं। (2)
वही ख़ुदा है जिस ने तुम सबको एक नफ़्स से पैदा किया है और फिर उसी से उसका जोड़ा बनाया है ताकि उस से सुकून हासिल हो। (3)
इन आयात में क़ुरआन ने इन्सानी इक़दार के एतबार से औरत को मर्द के बराबर समझा है लिहाज़ा इस लिहाज़ लिहाज़ से मर्द को औरत पर कोई बरतरी हासिल नहीं है।
इन्सान की हक़ीक़त को उसकी रूह तशकील देती है ना कि उसका बदन। इन्सान की इन्सानियत को उसकी जान अपनी हिफ़ाज़त में रखती है ना उसका जिस्म और ना ही उसकी जिस्म व जान मिलकर (4)
लिहाज़ा इन दोनों को मर्दाना और ज़नाना की सूरत से पहचान ने की कोशिश ना कीजिए बल्कि इन्सानियत के चेहरे से पहचानये।
इसी तरह क़ुरआन की रू से औरत, मर्द के क़दम बा क़दम तकामुल-पज़ीर(पूर्णता की ओर बढ़ना) है और इरफ़ान व अमल के साए में तकामुल के रास्ते को तय कर सकती है क़ुरआन जब भी इन अाला(ऊँचे) इक़दार की बात करता है जिस तक इन्सान पहुंचता है तो ख़्वातीन को मर्द के साथ क़रार देता है। (5)
यही वजह है कि रहबर इन्क़िलाब ए इस्लामी हज़रत इमाम ख़ुमैनी(रह) भी मर्द व औरत के इन्सानी हुक़ूक़ की बराबरी के क़ायल हैं आप इस सिलसिले में फ़रमाते हैं : हुक़ूक़े इन्सानी के लिहाज़ से मर्द व औरत में कोई फ़र्क़ नहीं है ; क्योंकि दोनो ही इन्सान हैं और औरत भी मर्द की तरह अपने भविष्य के इन्तिक़ाब का हक़ रखती है बल्कि कुछ जगहों पर मर्द व औरत के दरमियान कुछ फ़र्क़ हैं कि उन के इन्सानी मक़ाम से जिन का कोई रब्त नहीं है (7)

3: हज़रत अली (अस) के किसी ख़ुतबे में यह नहीं आया है कि मर्द, अक़्ल और जज़्बात दोनों एतबार से औरतों से बरतर हैं।
जो चीज़ हज़रत अली (अस) से मनसूब है वह यह है कि जज़्बात व एहसासात के एतबार से ख़्वातीन मर्दों से बरतर हैं।
हां नहजुल बलाग़ा के 89वें ख़ुतबे में हज़रत अली (अस) ने ख़्वातीन के नुक़्से अक़्ली के बारे में कुछ बात कही है, जो कई जिहात से क़ाबिले ग़ौर है :

अ: हज़रत अली से इस निस्बत की सेहत को दुरुस्त मानने की सूरत में यह कहा जाना चाहिए : यह तमाम औरतों के सिलसिले में एक आम क़ानून नहीं है।
तारीख़ से पता चलता है कि यह ख़ुतबा जंग जमल के बाद से मुतालिक़ है और इस जंग में अाइशा ने एक अहम किरदार अदा किया था और हक़ीक़त में पैग़म्बर की बीवी की हैसियत से उन की समाजी शख्सियत को तलहा व ज़ुबैर ने इस्तेमाल किया था और हज़रत अली (अस) के ख़िलाफ़ एक बड़ी जंग बसरा में छेड़ दी थी। हज़रत अली (अस) ने जंग के ख़त्म होने पर दुश्मनों को शिकस्त के बाद इस ख़ुतबे को औरतों की मज़म्मत में इरशाद फ़रमाया था। (8) लिहाज़ा क़राएन व शवाहिद की बुनियाद पर यह बात मुसल्लम(पूरा) है कि इस ख़ुतबे में कुछ ख़ास औरतें मुराद हैं ना कि दुनिया की तमाम ख़्वातीन ; क्योंकि इसमें शक नहीं कि ऐसी औरतें भी मौजूद हैं जो नवाबिग़-रोज़गार और अपने ज़माने के मर्दों से कहीं ज़्यादा अक़्लमन्द रही हैं। दीन की पेश रफ़्त और राह दीन में कोशिश को लेकर कलमा-ए-तौहीद की सर-बलन्दी के लिए कौन है जो हज़रत ख़दीजा, हज़रत फ़ातिमा, हज़रत ज़ैनब (अलैहिमुस सलाम) की अक़्ल व दरायत का इंकार कर सके या उन्हें मर्दों से कमतर समझे? इसलिए कैसे कहा जा सकता है कि इस क़ौल से हज़रत अली (अस) तमाम ख़्वातीन की मज़म्मत करना चाहते हैं? इसके अलावा हज़रत अली (अस) ने कुछ जगह कूफ़ा और बसरा के लोगों की कम अक़्ली का शिकवा किया है और उनकी मज़म्मत व सरज़निश में भी कुछ बातें बयान की हैं मसलन नहजुल बलाग़ा के 14 वें ख़ुतबे में फ़रमाते हैं : तुम्हारी अक़्लें हल्की और तुम्हारी सोचें अहमक़ाना हैं। (9) 34 वें ख़ुतबे में फ़रमाते हैं : उफ़ हो तुम्हारे मर्दों पर, तुम अपनी अक़्लों को इस्तेमाल नहीं करते हो। (10)
97वें ख़ुतबे में फ़रमाते हैं : ऐ वह लोग जिन के बदन मौजूद और अक़्लें ग़ायब हैं। (11)
131वें ख़ुतबे में फ़रमाया है : ऐ अलग अलग जान वालों! ऐ परागान्दा दिल वालों! जिन के बदन मौजूद और अक़्लें ग़ायब हैं। (12)
इस मौक़े पर हज़रत अली (अस) सराहतन कुछ मर्दों की मज़म्मत करते हैं और उनको कम अक़्ल और हल्की सोच वाला बताते हैं। जबकि कूफ़ा और बसरा ने बहुत से उलेमा और दानिशमन्द दुनिया ए इस्लाम को पेश किये हैं।
दूसरे शब्दों में मुमकिन है एक ख़ास ज़माने के हालात, सताइश की ज़मीन हमवार कर दें और दूसरे ख़ास ज़माने में मज़म्मत का बाएस बनें। (13) और ज़माने के गुज़रने के साथ साथ सताइश व मज़म्मत दोनों के हालात ख़त्म हो जाएं। (14) इस तरह कहा जा सकता है कि नहजुल बलाग़ा में ख़्वातीन या मर्दों की मज़म्मत एक तरह के ख़ास हालात में हुई है। (15) इसकी एक और दलील यह है कि हज़रत अली (अस) ने दूसरी जगहों पर बहुत से दूसरे मर्दों की तरफ़ नुक़्से अक़्ल की निस्बत दी है। एक जगह हज़रत अली (अस) फ़रमाते हैं : इन्सान की ख़ुद पसन्दी उसकी कम अक़्ली पर दलील है। (16) इस हदीस और इस तरह की दूसरी अहादीस (17) मैं ख़ुद पसन्दी, शहवत, हवस परस्ती वग़ैरह को कम-अक़्ली की दलील समझा गया है। लिहाज़ा बईद नहीं है कि औरतों की तरफ़ कम-अक़्ली की निस्बत भी इसी बाब से हो और इस से मुराद आरज़ी असबाब हों जो ख़ास तौर से इस ज़माने मेें मौजूद हों जिसके सबब उनकी अक़्लें नाक़िस हुई हैं। यह असबाब व इलल चूँकि औरत की तीनत और सरिश्त में दाख़िल नहीं हैं लिहाज़ा उनको तरबियत व तहज़ीबे नफ़्स के ज़रिए क़ाबू किया जा सकता है।
इस तरह की मज़म्मतें हक़ीक़त में औरत की ज़ात और उसके जौहर की तरफ़ नहीं पलटीं जैसा कि मर्दों की मज़म्मतें भी ज़ात की तरफ़ नहीं पलटीं।
और फिर यह और इस तरह की रिवायात, तरबियती उनसुर लिए होती हैं। यानी मर्दों को ख़बरदार किया जाता है कि औरतों की रंगीन व मतनूअ ख़्वाहिशात और अहकाम की पैरवी ना करें कि मुम्किन है कि इनको मुतादिद(कई) आफ़तों और परेशानियों में मुब्तिला(धकेल) कर दे और ज़रूरी है कि मर्द एक ख़ास हद तक अपना इस्तेक़लाल(स्थिरता, दृढ़ता) बरक़रार रखें।
ख़ास तौर से यह कि जंग और दीगर सख़्त हालात में उन की ख़्वाहिशात और अहकाम की पैरवी जमूद और सुस्ती की बाएस बन सकती है। और यह बात हज़रत अली (अस) के ज़माने से एक गहरा रिश्ता भी रखता है। (18)

आ: एक एतबार से कहा जा सकता है कि अक़्ल की दो क़िस्में हैं :
1: अक़्ले मुहासिब या अक़्ले इजतेमाई
2: अक़्ले इक़दारी
मुम्किन है कि ख़्वातीन पर मर्दों की बरतरी से हज़रत अली (अस) की मुराद अक़्ले मुहासिब हो ना कि अक़्ले इक़दारी।
दूसरे शब्दों में : बाहमी इम्तियाज़ात की बिना पर मर्द की औरत पर बरतरी दरअस्ल में है। लेकिन अक़्ले इक़दारी जो अल्लाह से तक़ररुब(नज़दीकी) और जन्नत के हुसूल का सबब बनती है(19) इस में औरत पर मर्द बरतरी नहीं रखता।) 20)

हम हर चीज़ का इंकार कर सकते हैं लेकिन इसका इंकार नहीं कर सकते कि इन दोनों जिन्सों के दरमियान जिस्मानी और रूहानी दोनों एतबार से कुछ फ़र्क़ ज़रूर हैं जिस का तज़किरा मुख़तलिफ़ किताबों में हुआ है और इसका खुलासा यह है कि क्योंकि औरत इन्सान के वुजूद व विलादत का मरकज़ है और बच्चों की तरबियत का अहम काम उसकी आग़ोश में अन्जाम पाता है, इस लिए जिस तरह इस का जिस्म ऐसे बना है कि वह बाद की नस्ल को उठा सके और उसे की परवरिश कर सके इसी तरह रूहानी एतबार से भी एहसासात, जज़्बात और हमदर्दी में उसका हिस्सा ज़्यादा है।
लिहाज़ा माँ की मन्ज़िलत, तरबियते औलाद, घर में महर व मुहब्बत की तक़सीम(बांटना) भी औरत ही के सुपुर्द की गई है। (21) दूसरे शब्दों में अगर से मर्द व औरत में इन्सानी इक़दार के लिहाज़ से कोई फ़र्क़ नहीं है लेकिन अपने सनफ़ी(जिन्स या लिंग) तक़ाज़ो के एतबार से दोनो अलग अलग तरह से अमल करते हैं। अल्लाह ने मौजूदात को हिकमत और उनके मक़ाम व फ़र्ज़ के एतबार से पैदा किया है, और मर्द व औरत भी इस का़यदे से मुसतश्ना(मुक्त) नहीं हैं। मर्द व औरत कुछ ज़ावियों से मसलन जिस्म, नफ़सियात और जज़्बात व अहसासात के एतबार से अलग अलग हैं। घर से औरत की मुहब्बत और घराने से उसका लगाव लाशऊरी तौर पर मर्द से ज़्यादा है। औरत मर्द से ज़्यादा नर्म दिल है। और हज़रत अली (अस) का क़ौल भी मर्द व औरत के इन नफ़्सियाती और जज़्बाती फ़िरक़ों के पेशे नज़र है। यानी आप फ़रमाना चाहते हैं कि : औरत के जज़्बात उसकी अक़्ल पर ग़ालिब रहते हैं और अगर यह ना होता तो औरत अपने माद्री फ़राएज़ भी अदा नहीं कर सकती थी। और इस लिहाज़ से मर्द, औरत के बिलमुक़ाबिल है और मर्द की अक़्ल उसके जज़्बात पर ग़ालिब रहती है और ख़िलक़त का यह फ़र्क़ अल्लाह की हिकमत के सबब है। और इन फ़रक़ों का होना भी ज़रूरी है। लिहाज़ा हज़रत अली (अस) इन में से एक को दूसरे पर इक़दारी एतबार से बरतरी देने के दरपै नहीं हैं बल्कि एक क़ुदरती और फ़ितरी हक़ीक़त को बयान करना चाहते हैं और यह के जज़्बात व अहसासात अगर से अपनी जगह मतलूब हैं लेकिन फ़ैसला करने और मुस्तक़बिल साज़ी में उनकी बात आख़री बात नहीं होती।
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[1] सहीफ़ा ए नूर, जिल्द 14, पेज 200
[2] सूरह निसा, आयत 1
[3] सूरह आअराफ़, आयत 189
[4] जव्वादी आमली, अब्दुल्लाह, ज़न दर आइना ए जलाल व जमाल
[5] सूरह अहज़ाब, आयत 35: सूरह अाले इमरान, आयत 195
[6] सूरह रूम, आयत 21
[7] सहीफ़ा ए नूर, जिल्द 3, पेज 49
[8] नहजुल बलाग़ा
[9] ःخفّت عقولکم و سفهت حلومکم…
[10] ःاُف لکم… فانتم لاتعقلون…
[11] ःایها القوم الشاهدۃ ابدانهم الغائبۃ عنهم عقولهم…
[12] ःایتها النفوس المختلفۃ والقلوب المتشتتۃ الشاهدۃ ابدانهم و الغائبۃ عنهم عقولهم…
[13] यानी कुछ मौक़ों पर तारीफ़ें और मज़म्मतें(आलोचना) किसी ख़ास हवादिस और हालात की वजह से होती हैं।
[14] जव्वादी आमली, अब्दुल्लाह, ज़न दर आइना ए जलाल व जमाल
[15] मआदीख़्वाह, अब्दुल मजीद, ख़ूरशीद बी ग़ुरूब, पेज 13-14
[16] एजाब अल मरअ् बेनफ़सिही दलील अला जोअफ़, किताब अक़्ल व जहल 31, अल-काफ़ी जिल्द 1
[17] ग़ुरर अल हिकम व दुरर अल कलिम, जिल्द 1, पेज 311
[18] ज़न दर आइना ए जलाल व जमाल
[19] उसूले काफ़ी, जिल्द 1, किताब अक़्ल व जहल, बाब 1
[20] ज़न दर आइना ए जलाल व जमाल
[21] तफ़सीरे नमूना, जिल्द 2
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